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नमस्कार, आदाब दोस्तों आज ख़तों की एक श्रृंखला शुरू कर रहा हूँ जिसका पहला ख़त कुछ यूँ है-
अजनबी,
ये महज़ इत्तेफ़ाक तो नहीं था, तुम यूँ ही जो रास्ते में टकरा जाती थी मुझसे और तुम्हारी किताबें बिखर जाया करती थीं साथ ही बिखर जाया करते थे कुछ A4 साइज़ के पन्ने। मुझे भी तुम्हारे साथ मेहनत करनी पड़ती थी उन बिखरे हुए सामानों को इकट्ठा करने में। ये कई बार हुआ लेकिन मुझे कोई परेशानी नहीं होती थी, सोचता था कि मैं भी तो इसी तरह बिखरा हूँ क्या पता किसी रोज़ तुम इन बिखरे पन्नों की तरह मुझे भी समेट लो। तुम्हारा मुझसे टकराने पर Sorry और जाने पर Thank you कहना लगता था कि जैसे आदाब और अलविदा कह रही हो और मुझे वो Thank you का लम्हा कभी अच्छा नहीं लगा।
लाइब्रेरी में कोने की वो छोटी-सी टेबल पर जहाँ करीब चार लोग बैठ सकते थे लेकिन दिखता सिर्फ़ एक ही था, न जाने कितने घंटे कुर्बान किये थे हमने।जहाँ मैंने जौन एलिया को पढ़ा था और तुम कोई टेक्निकल सब्जेक्ट पढ़ा करती थी उनका नाम तो नहीं याद है बस इतना याद है कि जो किताबें तुम पढ़ती थी उनमें कुछ कागज़ के टुकड़े रख जाती थीं तुम। पूरे 432 टुकड़े मैंने गिनकर रखे हैं। कभी खोला नहीं उन्हे, डरता था और ख़ुदगर्ज़ भी था। डरता था कि तुमने अगर वही लिखा हो जो मैं पढ़ना चाहता था तो। ख़ुदगर्ज़ था क्यूँकि लिखना चाहता था सोचता था कि अगर तुमने अगर ये लिखा हो तो, वो लिखा हो तो, ऐसा हो-वैसा हो तो और फिर यही सोचकर लिखता रहा।
कभी तुमसे वो बातें कहीं नहीं जो शायद तुम जानती थी, नहीं शायद नहीं, बेशक तुम जानती थी। सिर्फ़ इसलिये नहीं कहा क्यूँकि तुम्हारा ख़याल मुझे बहुत अच्छा लगता था, मैं तुम्हारे ख़यालों में जीता था। लेकिन आज जब तुम्हारी उन यादों को ताज़ा करने में नाकाम रहा उन यादों को जिनके सहारे मैं अब तक जीता रहा तो ये ख़त तुम्हे लिख रहा हूँ। और एक बात नहीं पता होगी तुम्हें कि ये ख़त मैं उन्ही A4 साइज़ के पन्नों पर लिख रहा हूँ जो तुमसे टकराने पर मैं चुरा लिया करता था तुमने कभी ध्यान नहीं दिया होगा शायद गिनकर नहीं रखती थी तुम, शायद मैथ अच्छी नहीं थी तुम्हारी। और इस गुस्ताख़ी के लिये तुम्हारे ही अल्फ़ाज़ तुमसे कहता हूँ “Sorry”
-तुम्हारा जो तुम्हार न हो सका
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