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जानां,
ख़त मिला तुम्हारा और तुम्हारी बातें कुछ इल्ज़ाम-सी लगी मुझे, सो एक-एक करके सबका जवाब दे रही हूँ। हाँ तुम टकराने की बात कर रहे थे, चलो माना कि वो इत्तेफ़ाक नहीं था, साज़िश थी मगर तुम फिर भी बचकर चल सकते थे ना। वो पन्ने जो टकराने पर बिखर जाते थे तुम्हारे लिये ही लाती थी मैं। जहाँ तक बात रही मेरी Maths की तो वो कभी कमज़ोर नहीं रही। शायद तुम्हें याद नहीं कि तुम्हारी Maths की Back मैंने ही Clear करवाई थी।
हाँ मैं Sorry कह दिया करती थी टकरा जाने पर लेकिन तुम भी तो “माफ़ कीजियेगा” कह देते थे। तुम्हारे इसी अदबी रवैये की क़ायल थी मैं, कौन बोलता है अब इतनी उर्दू, लेकिन तुम्हें “तुम” ही कहा मैंने “आप” में उतना अपनापन कहाँ है? लाइब्रेरी की उस टेबल पर जहाँ तुम “जौन एलिया” को पढ़ते थे और मैं कोई TECHNICAL Subject पढ़ा करती थी,तुम्हें लगता था कि मैं क्या जानूँ शायरी मगर ऐसा नहीं था। मैनें भी पढ़ा था जौन को, फ़र्क इतना था कि मैंने इंटरनेट से पढ़ा और तुमने किताबों से।
और वो कागज़ों के टुकड़े जो मैं उन किताबों के बीच छोड़ दिया करती थी उनमें से पर कुछ भी नहीं लिखा था मैंने,सुना था शायर कोरे कागज़ों को पढ़ते हैं और ख़ामोशी को सुनते हैं। मुझे पता था कि तुम इन कागज़ के टुकड़ों को कभी खोलकर देखते भी नहीं,अगर देखते तो और न रखती मैं। तुम कहते हो कि तुम डरते थे तो तुम्हें आखिरी टुकड़ा खोलना चाहिये था। तुम कहते हो कि तुम ख़ुदगर्ज़ थे, शायद ये सच हो मगर पूरा सच नहीं हो सकता। इसलिये क्यूँकि जानां तुम कहा करते थे कि तुम रिश्तों को समझते हो लेकिन Relationship को नहीं।मैं समझती हूँ कि रिश्तों में जो वज़न है वो Relationship में नहीं है। तुमने मुझे ख़यालों में रखा कभी पाना नहीं चाहा, तुम नहीं चाहते थे कि तुम्हारी वजह से मैं ख़ुद को खो दूँ क्यूँकि तुम कुछ पुराने ख़यालातों के थे और मैं Modern थी। तुम इश्क़ की पाकीज़गी को मैला नहीं करना चाहते थे।
तुम्हे लगता है कि हम एक दरिया के दो किनारे हैं जो कभी एक नहीं हो सकते। लेकिन जानां दरिया अपने किनारों को कभी नहीं छोड़ता और ये किनारे साथ-साथ चलते हैं, एक न होकर भी एक होते हैं। तुम कहा करते थे ना कि ख़ुद को तभी बदलना चाहिये जब ख़ुद को सुधारना हो वरना वैसे ही बने रहो क्यूँकि कहीं न कहीं, कोई न कोई तो होगा जो ठीक तुम जैसे किसी के बारे में सोचता होगा। उम्मीद करती हूँ कि आज भी वैसे ही होगे जैसा मैं सोचा करती थी।
हाँ एक बात और मैं Modern हूँ, घर से बाहर ज़्यादा रही हूँ लेकिन अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी है मैंने। भोजपुरी जानती हूँ, बोलती भी हूँ। Mom-Dad की जगह अम्मा- बाबूजी भी बोल सकती हूँ। मैं पहले के ज़माने की औरतों की तरह इंतज़ार नहीं कर सकती थी। तुम्हारे घर वालों से बात कर ली है मैंने, माँ ने हाँ भी कर दिया है,तुम्हारे हाँ की ज़रूरत भी नहीं है। तुमने कभी बताया नहीं कि माँ को शहरी बहू चाहिये थी, चलो छोड़ो जाने भी दो। अब अगर ख़त पढ़ चुके हो तो घर की साफ़-सफ़ाई कर लेना, मेरे घर वाले आ रहे हैं तुमसे मिलने, आख़िर लड़का भी तो पसन्द आना चाहिये, Right to equality की बात है। और आख़िर में जो “sorry” तुमने कहा था उसकी आदत डाल लो सुना है कि बीवी की गलती पर भी शौहर को ही Sorry कहना पड़ता है।
-तुम्हारी “सिर्फ़ तुम्हारी”
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